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geeta ka sar meaning of geeta slok गीता का सार गीता स्लोक अर्थ सहित


।।   गीता का सार   ।।


--- पहले वो स्लोक जो सभी को याद होता है ---


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥८॥

हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है,

तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ॥९॥

साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का

विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥३॥

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला

सकती,इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥५॥

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं ।

इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।


--------- अब क्रम से एक- एक स्लोक -----------


क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥१॥

इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित

नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति ॥२॥

जैसे जीवात्मा की इस देह में बालपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥३॥

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला

सकती,इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥४॥

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥५॥

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं ।

इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥६॥

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही

आचरण करते हैं । वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है ।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥७॥

अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से अपना गुणरहित धर्म ही अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरों का धर्म भय को देने वाला है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥८॥

हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है,

तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ॥९॥

साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का

विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥१०॥

जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥११॥

वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते

और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥१२॥

अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥१३॥

जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है,

जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बरतता है।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥१४॥

दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने

वालों का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥१५॥

हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मुझे अर्पण कर ।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥१६॥

जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दु:खों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१७॥

तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है-वह मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१८॥

जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी

किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है-वह भक्त मुझको प्रिय है।

त्रिविधं नरकस्येदंद्वारं नाशनमात्मनः ।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥१९॥

काम, क्रोध तथा लोभ-ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का

नाश करने वाले अर्थात उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं । अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरंतप उच्यते ॥२०॥

देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, पवित्रता, सरलता,

ब्रह्मचर्य और अहिंसा-यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥२१॥

जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हित कारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम जप का अभ्यास है-वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥२२॥

मन की प्रसन्नता, शान्त भाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन

का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भली-भाँति पवित्रता-इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीविजयो भूति वा नीतिर्मतिर्मम ॥२३॥

हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव

धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है-ऐसा मेरा मत है।

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bar bar karu binati radhaswami aage lyrics Evening Prayer 1 बार बार करूँ विनती। राधास्वामी आगे

(श्री श्री ठाकुर अनुकूल चंद्र)  सान्ध्यकालीन विनति बार बार करूँ विनती। राधास्वामी आगे॥ दया करो दाता मेरे। चित चरणन लागे ॥१॥ जन्म जन्म रही भूल में। नहिं पाया भेदा ॥ काल करम के जाल में। रहि भोगत खेदा ॥ २ ॥ जगत जीव भरमत फिरें। नित चारों खानी॥ ज्ञानी जोगी पिल रहे। सब मन की घानी ॥ ३ ॥ भाग जगा मेरा आदिका। मिले सतगुरु आई। राधास्वामी धाम का। मोहि भेद जनाई ॥ ४ ॥ ऊँच से ऊँचा देश है। वह अधर ठिकानी ।। बिना संत पावे नहीं। श्रुत शब्द निशानी ॥ ५ ॥ राधास्वामी नाम की। मोहिं महिमा सुनाई ॥ विरह अनुराग जगाय के। घर पहुँचूँ भाई ॥ ६ ॥ साध संग कर सार रस। मैंने पिया अघाई ॥  प्रेम लगा गुरु चरण में। मन शांति न आई ॥ ७ ॥ तड़प उठे बेकल रहूँ। कस पिया घर जाई ॥ दर्शन रस नित नित लंहूँ। गहे मन थिरताई ॥ ८ ॥ सुरत चढ़े आकाश में। करे शब्द बिलासा ॥ धाम धाम निरखत चले। पावे निज घर वासा ॥९॥ यह आशा मेरे मन बसे । रहे चित्त उदासा ॥ विनय सुनो किरपा करो। दीजे चरण निवासा ॥१०॥ तुम बिन कोई समरथ नहीं । जासे माँगू दाना ॥ प्रेमधार बरखा करो। खोलो अमृत खाना ॥ ११ ॥ दीन दयाल दया करो। मेरे समरथ स्वामी॥ शुकर करूँ गावत रहुँ। नित राधास्वामी ॥ १२