।। सुभाषितानि ।।
।। सुभाषितानि ।।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूखैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥१॥
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वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणा अपि॥२॥
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अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥३॥
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नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः ।
विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥४॥
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श्रव एव परो यज्ञः श्रम एव परं तपः ।
नास्ति किश्चित् श्रमासाध्यं तेन श्रमपरो भव ॥५॥
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येषां न विद्या न तपो न दानम्,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भूवि भारभूता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥६॥
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निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥७॥
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अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥८॥
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न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामर्तिनाशनम् ॥९॥
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विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः ।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ॥१०॥
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नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः ।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥११॥
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विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाधर्मस्ततः सुखम् ॥१२॥
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।। अर्थ सहित ।।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूखैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥१॥
पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं जल, अन्न और अच्छे वचन ।
फिर भी मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं ।
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वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणा अपि॥२॥
सैकड़ों मूर्ख पुत्रों के होने से तो एक गुणवान पुत्र का होना अच्छा हैं। मिसाल की तौर पर अकेला चंद्र रात का अंधेरा मिटाता हैं, पर तारों के समूह से भी अंधेरा मिट नहीं सकता।
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अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥३॥
जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
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नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः ।
विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥४॥
सिंह को जंगल का राजा घोषित करने के लिए ना कोई अभिषेक किया जाता है और ना कोई संस्कार किया जाता है।
वह अपने गुणों एवं पराक्रम से स्वयं ही वनराज अर्थात जंगल के राजा का पद प्राप्त करता है।
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श्रव एव परो यज्ञः श्रम एव परं तपः ।
नास्ति किश्चित् श्रमासाध्यं तेन श्रमपरो भव ॥५॥
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येषां न विद्या न तपो न दानम्,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भूवि भारभूता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥६॥
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निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥७॥
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अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥८॥
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न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामर्तिनाशनम् ॥९॥
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विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः ।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ॥१०॥
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नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः ।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥११॥
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विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाधर्मस्ततः सुखम् ॥१२॥
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